आदिवासी महानायकों पर क्यों नहीं बनती फ़िल्में
- TUESDAY, 08 MAY 2012 11:22
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निर्माताओं को उन महानायकों पर भी फिल्म बनाने के बारे में सोचना चाहिए जो देश के लिए मर मिटे, लेकिन उन्हें भारत के इतिहास में सही जगह नहीं मिली या यूं कहें कि भारत सरकार ने उन्हें भूला दिया.आदिवासियों के कई महानायक हैं जो देश के लिए एक मिसाल कायम कर गए...
राजन कुमार
वर्तमान समय में वास्तविक जीवन पर बनी फिल्में बाक्स ऑफिस पर धूम मचा रहीं है, जिससे निर्माता वास्तविक जीवन पर फिल्म बनाने को लेकर काफी उत्साहित हैं.डर्टी पिक्चर और पान सिंह तोमर जैसे फिल्मों के हिट होते ही बॉलीवुड में वास्तविक जीवन की फिल्मों की बाढ़ आने वाली है.वास्तविक जीवन पर एथलीट मिल्खा सिंह, हॉकी के जादूगर ध्यानचंद पर फिल्में बनने जा रहीं हैं, जबकि पूर्व प्रधानमंत्री स्व. राजीव गांधी, स्व. इंदिरा गांधी, सोनिया गांधी, दिव्या भारती, दाऊद इब्राहिम के जीवन से प्रेरित फिल्मों की खबरे आ रही हैं. वहीं अमिताभ बच्चन, सचिन तेंदुलकर, अन्ना हजारे, एन.आर. नारायणमूर्ति, एम.एफ.हुसैन, और युवराज सिंह पर फिल्में बनाने के लिए कई निर्माता विचार कर रहें है.
लेकिन ये वे नाम हैं जो वर्तमान पीढ़ी से संबंध रखते हैं या आजादी के बाद के हैं.निर्माताओं को उन महानायकों पर भी फिल्म बनाने के बारे में सोचना चाहिए जो देश के लिए मर मिटे, लेकिन उन्हें भारत के इतिहास में सही जगह नहीं मिली या यूं कहें कि भारत सरकार ने उन्हें भूला दिया.आदिवासियों के कई महानायक हैं जो देश के लिए एक मिसाल कायम कर गए, लेकिन भारतीय इतिहास में उन्हें कोई खास जगह नहीं मिली हैं.ये महानायक आज सिर्फ उन्हीं क्षेत्रों में लोक कथाओं में प्रचलित हैं जिस क्षेत्र से वे हैं.
झारखण्डी आदिवासियों के भगवान बिरसा मुंडा, महानायिका सिनगी दई, राबिनहुड के नाम से जाने जाने वाले टंट्या भील, सिद्धू कान्हूं, तिलका मांझी, शहीद गैंदा सिंह जैसे अनेक आदिवासी महानायक जिन पर फिल्में बनाई जा सकती हैं.ये वे महायोद्धा हैं जो कभी अंग्रेजों के गुलामी बर्दाश्त नहीं किए, दुश्मनों के दांत खट्टे कर दिए, इन वीरों के आगे दुश्मनों को बैरंग लौटना पड़ा.इन आदिवासियों महानायकों पर फिल्म बनाकर इनकों आसानी से प्रचलन में लाया जा सकता है, जिससे ये गुमनाम महानायक लोगों के मार्गदर्शक बन सकें.नीचे इनके जीवन पर आंशिक प्रकाश-
बिरसा मुंडा: अंग्रेजों की शोषण नीति और असह्म परतंत्रता से भारत वर्ष को मुक्त कराने में अनेक महपुरूषों ने अपनी शक्ति और सामर्थ्य के अनुसार योगदान दिया.इन्हीं महापुरूषों की कड़ी का नाम है - 'भगवान बिरसा मुंडा'.
'अबुआ: दिशोम रे अबुआ: राज' अर्थात हमारे देश में हमारा शासन का नारा देकर भारत वर्ष के छोटानागपुर क्षेत्र के आदिवासी नेता भगवान बिरसा मुंडा ने अंग्रेजों की हुकुमत के सामने कभी घुटने नहीं टेके, सर नहीं झुकाया बल्कि जल, जंगल और जमीन के हक के लिए अंग्रेजी के खिलाफ 'उलगुलान' अर्थात क्रांति का आह्वान किया.
सिनगी दई: आज भी सिनगी दई के नेतृत्व में रोहतासगढ़ के हमले में तीन बार अपनी जीत को दर्शाने के लिए कई उरांव स्त्रियां अपने माथे में तीन खड़ी लकीर का गोदना गुदवाती है.उस के अदम्य साह्स और अदभुत सूझ बूझ के किस्से आज भी उरांव समाज में प्रचलित है जिसने अपनी जान पर खेलकर स्त्रियों का दल बना कर तुर्की फौज का सामना किया जिन्होंने सरहुल के पर्व के दौरान रोहतासगढ़ पर हमला बोल दिया था और अपनी जाति की रक्षा की.
आज भी काफी गर्व के साथ उसे राजकुमारी सिनगी दई के रूप मे याद किया जाता है जिसने हमलावरों के हाथों अपनी जाति को संहार होने से बचाया.आज भी उसी विजय के यादगार के तौर पर स्त्रियां बारह साल मे एक बार पुरूषों का भेस धरकर तीर धनुष तलवार और कुलहाड़ी आदि लेकर सरहुल त्यौहार के दौरान जानवरों के शिकार के लिए निकलती है जिसे जनी शिकार या मुक्का सेन्द्रा के नाम से पुकारा जाता है।
टंट्या भील: वर्ष 1800 का दौर अंग्रेजी सत्ता का अत्याचारी दौर था.उस दौर में अंग्रेजों के नाक में दम करने वाले क्षेत्रीय बहादुरों में ऐसे कितने ही जांबाज रहे हैं जिनका नाम इतिहास में कभी नहीं जुड़ा.किंतु अपने शौर्य और अपने कारनामों से जनता के दिलों में आज तक जिंदा हैं.ऐसे ही शहीदों में एक नाम मध्य प्रदेश के मालवा अंचन के टंटिया भील का है जो आज भी इस अंचल के लोगों के लिए भगवान का स्थान रखता है.अंग्रेजों की हालत पतली कर देने वाले इस युवक को आज तक अंग्रेजी दस्तावेज भारत का पहला राबिनहुड मानते हैं.अमीरों को लूटना और गरीबों में बांट देना ही टंटीया का धर्म था और शायद इसी धर्म ने उसे जननायक बनाया था।
सिद्धू कान्हू: सन् 1855 में सिद्धू-कान्हू नामक भाईयों ने अंग्रेजों और स्थानीय महाजनी शोषण प्रवृत्ति के विरुद्ध विद्रोह किया था.इस घटना ने संथाल परगना क्षेत्र को इतिहास में प्रतिष्ठित कर दिया.विद्रोह का परिणाम तो अधिक फलदायक नहीं रहा.लेकिन, इसने जनजातियों की एकनिष्ठता को प्रमाणित कर दिया.इसी एकता के बूते अंग्रेजों को इस अंचल के वास्ते अलग से नीति बनानी पड़ी.''संथाल परगना'' को विशेष क्षेत्र का दर्जा दिया गया।
तिलका माझी: पहले संथाल वीर थे जिन्होने अंग्रेजों के खिलाफ आदिवासी संघर्ष किया.उनका गोफन मारक अस्त्र था.उससे उन्होने अनेक अंग्रेजों को परलोक भेजा.अन्तत: अंग्रेजों की एक बड़ी सेना भागलपुर के तिलकपुर जंगल को घेरने भेजी गयी.बाबा तिलका मांझी पकड़े गये.उन्हे फांसी न दे कर एक घोड़े की पूंछ से बांध कर भागलपुर तक घसीटा गया.उनके क्षत-विक्षत शरीर को कई दिन बरगद के वृक्ष से लटका कर रखा गया।
शहीद गैंदा सिंह: गैंदसिंह परलकोट जमींदारी के जमींदार थे उन्हे भूमिया राजा की उपाधि थी.अंग्रेजों के विरूद्ध स्वतंत्रता संग्राम का प्रथम शंखनाद करने वाले गैंदसिंह का आत्मोत्सर्ग अनूठा और अविस्मरणीय है.हल्बा आदिवासी समाज, सम्पूर्ण आदिवासी समाज एवं सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ का माथा इस तथ्यबोध से गर्वोन्नत है कि बस्तर जैसे पिछड़े आदिवासी बहुल अंचल में स्वतंत्रता की चेतना का प्रथम बीजारोपण गैंदा सिंह जी ने किया.गैंदा सिंह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में बस्तर के ही नहीं वरन् सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ सहित राष्ट्र के प्रथम शहीद मानने में अतिश्योक्ति नहीं होगी.
युवा पत्रकार राजन कुमार स्वतंत्र पत्रकारिता करते हैं.
2 comments:
mai aap ke artical se bohot khush hu mai aap se bhavishy mai baat karna chahuga mere no hai9039564169 or harendra_chouhan@yahoo.in ya fir harendra.chouhan169@gmail.com ye fb ka account hai aap muze serch kar sakte hai
Salute to you sir I am agree with u...
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